Sunday 23 October 2011

शुभ दीपावली

From October 23, 2011

उजालों के ना जब तक आये पैग़ाम चिराग़ जलते रहें

मयस्सर हो ना रौशनी हर बाम चिराग़ जलते रहें ..

अँधेरे ख़ुद ही दामन ओड़ लें आकर शुआयों के ,

नूरानी जब तक ना हो हर गाम चिराग़ जलते रहें .

हमारी आँख में चमके चिराग़ अपनी मोहब्बत के ,

दिलों में प्यार के सुबह -ओ -शाम चिराग़ जलते रहें .

सजा लो लाख़ लड़ियाँ चमकीली दर -ओ -दीवारों पे ,

पर अपनी दहलीज़ पे घी के राम चिराग़ जलते रहें .

दोस्तों दिवाली मुबारक ,हो अदूं दिवाली मुबारक

चलों दे रिश्तों को नया आयाम चिराग जलते रहें

रौशनी जो भी दे “दीपक ” बस वो ही मशहूरियत पायें

ख़्याल हो ,ना किसी राह गुमनाम चिराग़ जलते रहें




Monday 26 September 2011

समाज की दुर्दशा और आवाम खामोश ..बड़ी हैरत की बात है


समाज की दुर्दशा और आवाम खामोश ..बड़ी हैरत की बात है ..लेकिन ये सब मुमकिन है ,यहाँ सब कुछ हो सकता है .ये हिंदुस्तान है मेरे भाई. सब्जीवाला अगर एक आलू कम तौल दे तो सब्जी काटने वाले चाक़ू से ही उसका क़त्ल हो जाता है और उसके परिवार वालों को चोर खानदान कह दिया जाता है. गली से घर वालों का निकलना मुश्किल हो जाता है. हर चलता फिरता ताने और तंज़ कसता जाता है. मानो इस आदमी में समाज का बेडा गर्क कर दिया और देश को इससे अपूर्णीय क्षति हुई है....दो आलू किसी का घर बर्बाद करने के लिए काफी हैं और क़त्ल करने वाला बहुत गर्व से ,सीना चौड़ा कर कहता है ...मैं असत्य बर्दाश्त नहीं कर सकता ...समाज में चोर नहीं पैदा होने चाहिए ....मैंने जिंदगी में कभी कोई भी गलत काम नहीं क्या और गलत देख कर मेरा खून खौल उठता है..मुझे अपने किये पर कोई अफ़सोस नहीं है...(शायद एक नेता का जन्म हो रहा है ....)

लेकिन अफ़सोस कि इस देश के नेता जो कि अधिकतर गरीब घर से आये और कु
छ सालों में ही कुबेर हो गए आवाम का पैसा खाकर जो कर और संचय निधि के रूप में इस देश कि तरक्की के लिए दिया था ...उस पर हम सब बिना क्रिया -प्रतिक्रिया दिए हुए खामोश बैठ गए ।हमारे मुहं से एक शब्द भी नहीं निकलता उनके खिलाफ . कोई भी पूछने वाला नहीं इसका हिसाब ...क्या हमने आत्मसमर्पण कर दिया है.क्या ये हमारी नज़र में जुर्म नहीं है ?क्या ये एक सब्जी वाले कि हरक़त से छोटा अपराध हैं? शायद इस बात का हमारे पास ज़वाब नहीं है या हम इस बात का ज़वाब ही नहीं देना चाहते .वज़ह कोई भी हो पर सत्य है कि हम डरते हैं . कभी ख़ुद से कभी औरों से. समाज के प्रति हमारा दायित्व केवल आलोचना करना है सिर्फ आलोचना . और उन बातों पर प्रतिक्रिया करना जिनका हमारी जिंदगी में कोई ख़ास मलतब नहीं है .

हमें ये बात बाखूबी पता है....आज किसी ताक़तवर से उलझ गए तो कल नौकरी से भी जायेंगे ...घर से भी ..परिवार से भी ...और पता नहीं क्या -क्या हो जाए ..ज़िन्दगी के साथ...इसीलिए भैया खामोश रहो और ऐसे देखो जैसे कुछ देखा -सुना नहीं. (शायद एक नपुंसक का ज़न्म हो रहा है. हमारे भीतर ...)
दरअसल हमे आदत हो गई है किसी भी हालात और माहौल में ढलने की. सहने की .चुप रहने की और बिना मतलब के वाकियात पर उलझने की .
हमे अपने सवालों का ज़वाब लेना नहीं आता . ज़रा किसी ने प्यार से पुचकार लिया और हम हिन्दुस्तानी लोग भूल गए सब बीती पुरानी,अगली-पिछली और भटक गए अपने सवाल से.जिसका नतीजा आज हमारे सामने है ...ये अस्थिर और असामान्य एवं अनियंत्रित समाज. समाज ने अपना संतुलन खो दिया है .विचारधाराओं में फर्क आया हैं . लोगों के मन में कुंठा पल रही है ..आपस में एक- दुसरे के लिए दुर्भावना हैं . समाज पतन की ओर बड़े दंभ और दिखावटी नज़रिए के साथ आगे बड़ रहा है ..जो हमे आज तो सुख देगा पर कल बहुत कुछ और भी भयाभय हकीक़त बिन मांगे देगा. (शायद अभिमन्यु चक्रव्यूह में फंस रहा है हमारे भीतर ...)
संवेदना और आदमियत दोनों का ही पलायन हो चुका है हमारी -आपकी जिंदगी से ...राह में कोई मर जाता है किसी दुर्घटना में तो हम पीछे मुड़ कर भी नहीं देखते ...लाश के ऊपर से गाड़ियाँ दौड़ाते,कुलाचें भरते ..हवा से बात करते हुए ..मुर्दे को रौंदते हुए निकल जाते हैं ..वो सिर्फ इसलिए कि मरने वाला अपना नहीं है...पुलिस के चक्कर में कौन पड़े...लेने के देने ना पड़ जाएँ..सरकार मुआवजा दे देगी.......पैदल चलने वाला ख़ुद देख कर तो चलता नहीं और साला मर जाता है तो गाड़ी वाले कि मुसीबत हो जाती है...ये ही ख्याल आते हैं ना मन के अन्दर... छी: लानत हैं हमे अपने आप को इंसान कहते हुए.. (शायद एक राक्षस का जन्म हो रहा है हमारे भीतर ......)
"चल कमला ये सब्जी ताज़ी है तू ले जाना और देख आराम से खाना स्वाद लेकर....रात ही बनाई थी लेकिन तुझे तो पता है ना कि तेरे भाई साहिब दुबारा नहीं खाते ...नखरे जयादा हैं ना ..." ये आप जिंदगी में रोज़ कहीं ना कहीं सुनते होंगे ...तीन -चार दिन की पुरानी ,बासी सब्जी जब हमसे नहीं खाई जाती और बदबू देने लगती है और लगता है कि इसे खाकर अब तो हमारी तबियत खराब हो जाएगी तो हम अपने काम करने वाले को देकर एहसान कर देते है और ख़ुद को दानवीर दिखाने की कोशिश करते हैं॥अरे सोचो ज़रा जो चीज़ हमे अच्छी नहीं लगते तो काम करने वाले तो कैसे अच्छी लगेगी ..क्या वो इंसान नहीं है? क्या उसके अन्दर लोहे की मशीन लगी है जो सब पचा लेगी ? ...

नहीं- नहीं ,काम वाली सब हज़म कर लेगी क्योंकि वो काम वाली है ...उसे ३२ रूपये में दिन भर गुज़ारना है ......उफ़ बहुत दर्दनाक स्थिति है....कोई सोचता क्यों नहीं ...क्या हम खुदगर्जी की चरम सीमा पर हैं...(शायद एक लोमड़ी का जन्म को रहा है हमारे भीतर....)
दिल के दुःख तो बहुत हैं ..धीरे धीरे सब सामने आते जायेंगे ..आज आइना देखा तो इतना ही देख पाया ..इससे ज्यादा देखने की ना हिम्मत थी और ना ही आँख में रौशनी ....अपनी एक ग़ज़ल आपको नज़र करता हूँ जो कुछ भी बयान करें पर आप समझ लोगे.....
"दिलक़त्ल हादसों से , नाम क्यों नहीं नज़र होती
नीयत अब तेरी क्यों बशर जैसी नहीं बशर होती ।

कोई भोजन भरे थालों में हाथ रोज़ धोता है
किसी को एक वक़्त की रोटी नहीं मयस्सर होती ।

वतन सियासत की बदौलत बुनियाद से हिल जाता है
मगर सियासत है कि ,कभी इधर से नहीं उधर होती ।

रास्ते हैं सलामत तो मुसाफिर ख़ुद चलकर आयेंगे
होता है खानावदोश इंसान ही बस , नहीं डगर होती ।

किताबों में पढ़ेंगी कल "दीपक"नस्लें फल -मेवों की बाबत
हुकूमत आवाम की खैरख्वाह अब भी नहीं अगर होती ।

सर्वाधिकार सुरक्षित @ दीपक शर्मा

Thursday 18 August 2011

एक हुंकार -अन्ना हजारे की समर्थन में ....कृपया इसे अधिकतम लोगों का पहुचाएं

हाथ खोलो ,घर से निकलो ,कब तलक खामोश रहोगे
बात अपनी अब तो कह दो ,कब तलक खामोश रहोगे

बढ के अपना मांग लो हक़,किस बात का है खौफ तुमको
कब तलक मिमयाते रहोगे ,कब तलक खामोश रहोगे ..

ख़ुद ज़हर पीकर भला क्यों, हम दूध सांपो को पिलायें
क्यों भूखे रखकर अपने बच्चें, रोटी सियासत को खिलाएं
दब के हुकुमत से रहें क्यों ,हम ही जब सरकार बनाएं
सरकार है आवाम की , फिर क्यों वो आवाम को सताएं
ज़ुल्म कब तलक सहते रहोगे, कब तलक खामोश रहोगे
हाथ खोलो ,घर से निकलो ,कब तलक खामोश रहोगे .

पैदा होने से मरण तक , तुम बांटते रहना बस रिश्वत
पढाई-लिखाई,और कमाई कब तलक समझोगे किस्मत
हक़ की तरह हक़ को मांगो,भीख मत तुम समझो हज़रत
वरना इन दुर्योधन के हाथों बच ना सकेगी घर की अस्मत
अब तो तुम गांडीव उठा लो ,कब तलक खामोश रहोगे
हाथ खोलो ,घर से निकलो ,कब तलक खामोश रहोगे .

हक़ है तुम्हें ये पूछने का , रंक से बने तुम कैसे राजा
ग़र है कोई आसान रस्ता ,तो मन्त्र वो सबको बता जा
या मान लो फिर सिर झुकाकर, जम्हूरियत शर्मिंदा की है
तुमने ही उनसे रहज़नी की बना रहनुमा जिन्होंने नवाज़ा
पकड़ गिरेबाँ पूछ लो आज ,कब तलक खामोश रहोगे
हाथ खोलो ,घर से निकलो ,कब तलक खामोश रहोगे .

आज फिर एक गांधी अपने घर से पैदल चल दिया है
फिर अपना जीवन आज उसने नाम वतन के कर दिया है
एक रौशनी की आस में तूफ़ान से "दीपक "लड़ लिया है
अब सम्भलों अंधेरों तुमने पहन सफेदी बहुत छल क्या है
लेकर मशाल उतरो सड़क पे ,कब तलक खामोश रहोगे
हाथ खोलो ,घर से निकलो ,कब तलक खामोश रहोगे

@कवि दीपक शर्मा
http://www.kavideepaksharma.com